देश में होने वाले शोध अनुसंधान का कोई सानी नहीं है। इसकी बानगी है भारतीय मंदिरों में चढऩे वाले फूलों से बनाया गया फ्लेदर। लेदर के बजाय ‘फ्लेदर से बनेे पर्स-बैग जर्मनी, फ्रांस, इटली, यूके व नीदरलैंड समेत अन्य देशों के लोग इस्तेमाल कर रहे हैं। बड़े पैमाने से पर्स बनाए जाने के बाद अब जैकेट का उत्पादन हाल ही में शुरू हुआ है। पुणे रीजनल कॉलेज से बीटेक और सिंबोयसिस इंस्टीट्यूट ऑफ बिजनेस मैनेजमेंट से इनोवेशन विषय से स्नातकोत्तर करने वाले अंकित अग्रवाल ने इसकी खोज की है। फूलों से बनाए जाने और लेदर जैसी गर्माहट होने के कारण इसे फ्लेदर नाम दिया है।
कई प्रयोग के बाद बनाया फ्लेदर
अंकित ने आइआइटी के छात्र-छात्राओं की टीम संग मिलकर स्टार्टअप स्थापित किया। दो साल तक आइआइटी कानपुर की अत्याधुनिक प्रयोगशाला में कई प्रयोग करने के बाद यह फ्लेदर बनाया गया। उनके इस उत्पाद को पीपुल फॉर द एथिकल ट्रीटमेंट ऑफ एनीमल (पीटा) ने प्रमाणपत्र दिया है। इसके अलावा इंस्टीट्यूट फॉर इंडस्ट्रियल रिसर्च एंड टॉक्सीकोलॉजी (आइआइआरटी) ने भी इसे मान्यता दी है।
मान्यता से स्पष्ट है कि ये त्वचा के लिए मुफीद है। अंकित को अपने इस शोध के लिए यंग एंटरप्रेन्योर के अलावा 10 फेलोशिप समेत अन्य अवार्ड प्राप्त हो चुके हैं। उनकी इस टीम में आइआइटी बांबे के पूर्व छात्र नचिकेता, आइआइटी कानपुर के रिषभ, सौम्या, संदीप, गौरव, आइआइटी बीएचयू के पूर्व छात्र आयुष व हरकोर्ट बटलर प्राविधिक विश्वविद्यालय के लेदर टेक्नोलॉजी ब्रांच के पूर्व छात्र अमन शामिल हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि भारतीय मंदिरों से फूल इकट्ठा करने को उनकी टीम में शामिल 50 से अधिक महिलाओं को इससे रोजगार मिल रहा है।
लेदर की तुलना में ज्यादा गर्म
अंकित ने बताया कि गेंदा व गुलाब समेत अन्य फूलों में एंजाइम मिलाकर फ्लेदर तैयार किया जाता है। इसमें 70 फीसद भाग गेंदे के फूल का होता है। सिंबायटिक रिलेशनशिप ऑफ बैक्टीरियल कल्चर की प्रक्रिया से गुजारकर फ्लेदर बनाया जाता है। यह प्रक्रिया इस प्रकार की होती है जब फूलों में संगल और सिंबायटिक बैक्टीरिया यानी एंजाइम मिलाए जाते हैं तो फूलों के पोषक तत्व मिलने से ये तेजी से बढ़ते हैैं और ये फ्लेदर का स्वरूप ले लेते हैैं। यह क्रिया बायो रिएक्टर में कराई जाती है। विदेश में जांच में पुष्ट हुआ है कि यह लेदर की तुलना में ज्यादा गर्म है। इसे चार पेटेंट मिल चुके हैं। रोजाना तीन हजार सात सौ किलो फूलों से फ्लेदर की 4/4 फीट की 1200 शीटें बनाई जा रही हैं।
छह गुना तेजी से होता है उत्पादन
चमड़े की तुलना में फ्लेदर का उत्पादन छह गुना तेजी से होता है। कच्चे चमड़े से शीट बनाने की प्रक्रिया नौ चरणों में होती है जबकि इसकी प्रक्रिया महज तीन चरणों में पूरी हो जाती है। प्रक्रिया पूरी होने में महज छह दिन का समय लगता है।
मथुरा व वृंदावन के पास यूनिट खोलने की योजना
फ्लेदर बनाने के लिए मथुरा व वृंदावन के फूलों का उपयोग किया जा रहा है। इन फूलों को कानपुर स्थित औद्योगिक इकाई लाकर उत्पादन प्रक्रिया की जाती है। अब मथुरा व वृंदावन के समीप यूनिट खोलने की योजना है ताकि अधिक उत्पादन किया जा सके। पर्यावरण के लिहाज से यह बेहतरीन उत्पाद है। यह ईको फ्रेंडली उत्पाद मील का पत्थर साबित होगा। प्राकृतिक होने की वजह से गरमाहट देने में ज्यादा मुफीद होगा।